the Seventh Sunday after Epiphany
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पवित्र बाइबिल
अय्यूब 14
1 मनुष्य जो स्त्री से उत्पन्न होता है, वह थोड़े दिनों का और दुख से भरा रहता है।2 वह फूल की नाईं खिलता, फिर तोड़ा जाता हे; वह छाया की रीति पर ढल जाता, और कहीं ठहरता नहीं।3 फिर क्या तू ऐसे पर दृष्टि लगाता है? क्या तू मुझे अपने साथ कचहरी में घसीटता है?4 अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं।5 मनुष्य के दिन नियुक्त किए गए हैं, और उसके महीनों की गिनती तेरे पास लिखी है, और तू ने उसके लिये ऐसा सिवाना बान्धा है जिसे वह पार नहीं कर सकता,6 इस कारण उस से अपना मुंह फेर ले, कि वह आराम करे, जब तक कि वह मजदूर की नाईं अपना दिन पूरा न कर ले।
7 वृक्ष की तो आशा रहती है, कि चाहे वह काट डाला भी जाए, तौभी फिर पनपेगा और उस से नर्म नर्म डालियां निकलती ही रहेंगी।8 चाहे उसकी जड़ भूमि में पुरानी भी हो जाए, और उसका ठूंठ मिट्टी में सूख भी जाए,9 तौभी वर्षा की गन्ध पाकर वह फिर पनपेगा, और पौधे की नाईं उस से शाखाएं फूटेंगी।10 परन्तु पुरुष मर जाता, और पड़ा रहता है; जब उसका प्राण छूट गया, तब वह कहां रहा?11 जैसे नील नदी का जल घट जाता है, और जैसे महानद का जल सूखते सूखते सूख जाता है,12 वैसे ही मनुष्य लेट जाता और फिर नहीं उठता; जब तक आकाश बना रहेगा तब तक वह न जागेगा, और न उसकी नींद टूटेगी।13 भला होता कि तू मुझे अधोलोक में छिपा लेता, और जब तक तेरा कोप ठंढा न हो जाए तब तक मुझे छिपाए रखता, और मेरे लिये समय नियुक्त कर के फिर मेरी सुधि लेता।14 यदि मनुष्य मर जाए तो क्या वह फिर जीवित होगा? जब तक मेरा छूटकारा न होता तब तक मैं अपनी कठिन सेवा के सारे दिन आशा लगाए रहता।15 तू मुझे बुलाता, और मैं बोलता; तुझे अपने हाथ के बनाए हुए काम की अभिलाषा होती।
16 परन्तु अब तू मेरे पग पग को गिनता है, क्या तू मेरे पाप की ताक में लगा नहीं रहता?17 मेरे अपराध छाप लगी हुई थैली में हैं, और तू ने मेरे अधर्म को सी रखा है।18 और निश्चय पहाड़ भी गिरते गिरते नाश हो जाता है, और चट्टान अपने स्थान से हट जाती है;19 और पत्थर जल से घिस जाते हैं, और भूमि की धूलि उसकी बाढ़ से बहाई जाती है; उसी प्रकार तू मनुष्य की आशा को मिटा देता है।20 तू सदा उस पर प्रबल होता, और वह जाता रहता है; तू उसका चिहरा बिगाड़कर उसे निकाल देता है।21 उसके पुत्रों की बड़ाई होती है, और यह उसे नहीं सूझता; और उनकी घटी होती है, परन्तु वह उनका हाल नहीं जानता।22 केवल अपने ही कारण उसकी देह को दु:ख होता है; और अपने ही कारण उसका प्राण अन्दर ही अन्दर शोकित रहता है।